मनुष्‍य और प्रकृति का सम्‍बन्‍ध

प्रतीक बड़गुजर
simplewords48@gmail.com


अचानक, एक दिन, मेरे एक दोस्त ने समाचार लेखों के एक के बाद एक 4-5 लिंक भेजे। यह मेरे लिए थोड़ी आश्चर्यचकित करने वाली बात थी क्योंकि मैं उसे कभी भी एक समाचार पढ़ने वाले व्यक्ति के रूप में नहीं जानता था। इसलिए,यह पहला अवसर था। आमतौर पर वह उन समाचार को भी नहीं पढ़ता है, जिन्‍हे मैं उसे भेजता हूं। वह एक चिंता मुक्‍त जीवन जीना पसंद करता है। 

 वे सभी लेख किसी न किसी तरह से प्रलय से जुड़े थे और उन लेखों में पृथ्वी पर मनुष्यों के अस्तित्व पर चिंता व्यक्त की गई थी। उन सभी लेखों में यह वकालत की गई कि मनुष्य द्वारा प्रकृति को होने वाले नुकसान को देखते हुए, मनुष्यों का विलुप्त होना त है। मेरा मित्र इससे बहुत चिंतित हो रहा था। 

 हम मनुष्य, स्वयं को प्रकृति की परम एवं भव्‍य रचना मानते हैं। हम मानते हैं कि मनुष्यों का निर्माण प्रकृति का परम लक्ष्य था और इसलिए हमारा अस्तित्व हमेशा सुनिश्चित होना चाहिए। जबकि, वास्तव में, इसके विपरीत, मनुष्य प्रकृति की एकमात्र ऐसी रचना प्रतीत होती हे, जो स्‍वयं प्रकृति को क्षतिग्रस्‍त कर रही है। 
  प्रकृति में जीवन की सभी रचनाएँ प्राकृतिक नियमों से बंधी हैं। विवेक की कमी के कारण, वे उन नियमों से परे नहीं जा सकते, या उनमें हेर-फेर नहीं कर सकते हैं। इंसान ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसमें स्‍वतत्रंता पूर्वक चुनने की अनोखी क्षमता है। हमने इस क्षमता का उपयोग जीवित रहने और बेहतर आराम की व्यवस्था के लिए किया। सुख-सुविधाओं की पूर्ति के पीछे, हमारे द्वारा प्रकृति में निर्मित क्षति और गड़बड़ी को हमने नजरअंदाज कर दिया। खाद्य श्रृंखलाओं का विघटन, प्रजातियों का विनाश, मिट्टी, हवा और पानी को नुकसान और अन्‍य विभिन्‍न रूपो में, जिनका कभी पूरा पूरा हिसाब नहीं लगाया गया,प्रकृति को क्षतिग्रस्‍त किया ।
  लेकिन आप कह सकते हैं कि खुद को बचाने में गलत क्या है? अगर यह बात जानने के बाद भी कि प्रलय का दिन आ रहा है,यदि हम अपनी रक्षा नहीं करेंगे, तो क्या यह आत्महत्या के बराबर नहीं है?
निश्चित रूप से, आत्म-सुरक्षा में कुछ भी गलत नहीं है। इसकी एक स्वाभाविक वृत्ति सभी प्राणियों में है। लेकिन क्या हमारे आराम और विलासिता के लिए प्रकृति का गलत दोहन  करने की भी हमारी वृत्ति नहीं है? 
  प्रकृति की दृष्टि से, मनुष्य लाखों अन्य जीवन रूपों कि तरह एक जीवन रूप है |जो वास्‍तव में प्रकृति के लिए बहुत नुकसानदायक सिद्ध हुआ है। हजारों वर्षों में, मानव सामाजिक दायरे में रहकर विकसित हुआ है, जिसका तात्पर्य है कि हमें अस्तित्व के लिए अन्य मनुष्यों से सहायता की आवश्यकता रहती है। यदि किसी को प्रकृति में अकेला छोड़ दिया जाता है, तो वह शायद ही तब तक जीवित रह पाएगा जब तक कि उसने किसी प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त न किया हो। मैं इसे एक सौदे के रूप में देखता हूं, जो प्रकृति ने मनुष्यों के साथ किया। एक तरफ हमें चेतना दी गई और दूसरी तरफ हम शारिरिक रूप से प्रकृति से मुकाबला करने में कई प्रकार से असमर्थ भी रखा हैं। हम जो नुकसान कर रहे हैं और इसके नतीजों से भी अवगत हैं, इसके बावजूद हम जैविक रूप से उनके साथ मुकाबला करने में कितने सक्षम हैं? ऐसे कई जीव हैं जो या तो इंसानो से बेहतर हैं या इंसानों की तरह ही बुद्धिमान हैं। कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं: 

लंग फिश- एक मछली जो चार साल तक बिना पानी के जमीन के अंदर जिंदा रह सकती है!

अमर जेलीफ़िश: वैज्ञानिक रूप से टुरिटोप्सिस दोह्रनी (Turritopsis Dohrnii) के रूप में जाना जाता है, वस्तुतः जैविक रूप से अमर है।

डॉल्फ़िन: विभिन्न अध्ययनों में, यह पाया गया है कि डॉल्फ़िन जटिल समस्या को हल करने और सामाजिक संपर्क रखने में सक्षम हैं। 

बैक्टीरिया: माइक्रोबियल इंटेलिजेंस अपने आप में एक शोध क्षेत्र है। यह पता चला है ​​कि बैक्टीरिया, आबादी के रूप में काफि परिष्कृत व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं। 

वायरस: इसे मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है! 

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI): AI हालांकि जीवन रूप या प्रकृति का निर्माण नहीं है, किंतु AI ने खुद को कई पहलुओं में मनुष्यों की तुलना में बेहतर साबित किया है। 

  इसलिए, यह स्पष्ट है कि जैविक रूप से, मनुष्यों के अस्तित्व में कोई महानता नहीं है। हम अब भी, और हमेशा से ही, जटिल प्रकृति का एक हिस्सा भर हैं। संख्यात्मक रूप से, मनुष्य सभी जीवित रूपों का लगभग 0.01% मात्र है जबकि पैड़-पौधे अनुमानत: लगभग 82% है। 

 यह निश्चित रूप से सच है कि कोई भी पृथ्वी से जीवित बचकर नहीं निकलता है, इसलिए प्रलय हो या ना हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक व्यक्ति की मृत्यु उसकी व्यक्तिगत है। यहां तक ​​कि अगर हजारो लोग भी उसी समय उसी के साथ मरते हैं, तब भी उस व्‍यक्ति के लिए, उसकी अपनी मृत्यु ही एकमात्र अनुभव है। अत: इस तरह से वास्‍तव में उसके पास मृत्‍यू के समय साथ देने हेतू कोई उपलब्‍ध नहीं है। 

  जितनी जल्दी हम अपने अस्तित्व को प्रकृति की एक नियमित, सामान्य घटना के रूप में स्वीकार करेंगें और उसके अनुसार व्यवहार करेंगें, प्रलय को दूर, बहुत दूर धकेलने की हमारी क्षमता उतनी ही ज्‍यादा होगी   

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