मानवीय मुल्‍योे के निर्माण में माता-पिता का योगदान।


 चन्‍द्रशेखर संगोई

भारत सरकार नई शिक्षा नीति लाने की कवायद में लगी हुई है। नई शिक्षा नीति में 10+2 के स्थान पर 5+3+3+4 लागू होगा। इससे पहले 1986 में आखरी बार शिक्षा नीति को बदला गया था। आधुनिक परिवेश एवं विकसित तकनीकी की जानकारी के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक भी है। 

प्रत्येक देश अपने वर्तमान परिदृश्य के अनुरूप अपनी शिक्षा नीति को बदल कर आधुनिक एवं सार्थक तरीकों से अपने लोगों को शिक्षित करता है, ताकि वह और अधिक विकसित मानवीय मूल्‍यो की नींव रख सके। समय-समय पर इन बदलावों के साथ हमने टेक्नोलॉजी, प्रति व्यक्ति आय, सुख-सुविधा में बढ़ोतरी भी की परंतु मानवीय मूल्‍य उतनी ही तेजी से विकसित नहीं हुए। जिसका यह परिणाम है कि सम्‍पूर्ण संसार की अधिकतम आबादी स्‍वार्थी हो गई है। कोई भी व्यक्ति अपनी नई पीढ़ी को तकनीकी रूप से आधुनिक एवं अधिक आय संपन्न होने के सपने तो पूरे होते देखता है, परंतु उसी अनुपात में उनमें मानवीय मूल्‍य विकसित होते हुए कम ही देखता है। जिसका कारण अधिकांशतः उस समय की शिक्षा नीति को बताया जाता रहा है। क्या आप भी ऐसा मानते हैं कि बच्‍चो के संपूर्ण विकास में कमी केवल उस समय की शिक्षा नीति के कारण रहती है? क्या शिक्षा नीति बदल जाने से संपूर्ण विकास होने लगेगा?

 सदियों तक मानव विकास पर अध्ययन कर ऋषियों (वैज्ञानिको/शिक्षाविदों) ने सनातन धर्म के अपने शास्त्रों ( जब मैं शास्त्र लिखुँ तो आप इसे पौराणिक काल के वैज्ञानिकों/शिक्षाविदों की थीसिस भी पढ़ सकते हैं) में शिक्षा को अलग ढंग से प्रस्तुत किया है। इनमें लिखी हुई बातों को वर्तमान शिक्षाविद् भी स्वीकार करते नजर आते हैं। मैं अपने लेख में उनकी महत्वपूर्ण बातों को आपके सामने संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत कर रहा हूं।

 किसी भी मनुष्य के शरीर का प्रारम्‍भ उसके माता-पिता की दो कोशिकाओं (अंडाणु और शुक्राणु) से होता है। इन कोशिकाओं के द्वारा माता पिता के सभी चारित्रिक गुण संतान में प्रवेश करते हैं। इसीलिए किसी भी व्यक्ति की चारित्रिक विशेषताएँ उसके माता-पिता से बिल्कुल मिलती-जुलती है। जब किसान खेत के लिए बीज तैयार करता है, तो वह विभिन्न विधियों द्वारा शुद्ध बीजों को चुनता है। क्योंकि जैसा बीज वैसी ही फसल। माता पिता के रूप में आप  जीवन के रचयिता होते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस प्रकार की रचना पसंद करेंगे। जो चारित्रिक गुण आप अपनी संतान में चाहते हैं, उन्हे स्वयं में विकसित करना उसकी शिक्षा का पहला सबसे महत्वपूर्ण कदम होता है। गर्भ धारण के पहले ही माता-पिता को अपने चरित्र से सभी र्दुगुणों को हटाना आवश्यक है इसके साथ ही साथ उन सभी गुणों को अपने में विकसित करना आवश्‍यक है, जो आप उनमें देखना चाहते हैं। यह काम इसी तरह है जैसे गेहूँ से शुद्ध आटा बनाने के पहले आप गेहूँ में से कंकड़, मिट्टी और अन्य बीज विभिन्न विधियों का उपयोग कर अलग कर देते हैं। बचे हुए साफ गेहूँ से आप शुद्ध आटा बनवाते हैं।

 

जब बच्चा गर्भ में रहता है उस समय मां और बच्चा एक ही इकाई के रूप में रहते हैं। उन नौ महीनों में बच्चा केवल मां का अनुसरण करता है। मां जो भी खायेगी, पियेगी, पढ़ेगी, सुनेगी एवं विचार करेगी उन सभी का बच्चे पर पुरा असर रहता है। मां की प्रत्येक भावना का असर बच्चे पर पड़ता है। इसीलिए  डॉक्टर्स यह सलाह भी देते हैं कि गर्भ के समय मां को मानसिक रूप से तनाव मुक्त, सकारात्मक विचारयुक्त, अच्छे विषयों पर अध्ययनरत रहें तनाव मुक्त एवं सकारात्मक रहने के लिए व्यायाम/प्राणायाम/योगा, सात्विक भोजन दिनचर्या का हिस्सा बने। धार्मिक ग्रंथों, महान विचारकों एवं सफल व्यक्तियों की पुस्तकें इस दौरान पढ़ना अत्यंत सराहनीय है। आधुनिक शोधकर्ताओं के अनुसार गर्भ के समय मां जो संगीत सुनती है, उस संगीत को जन्म के बाद उसी रोते हुए बच्चे को सुनाने पर वह स्वता: ही मुस्कुराने लगता है। आपने अभिमन्यु की वह कथा तो जरूर सुनी होगी, जिसमें अभिमन्यु गर्भ में रहते हुए चक्रव्यूह भेदन का ज्ञान प्राप्‍त कर लेते हैं। सात्विक भोजन, प्राकृतिक वातावरण, शान्‍त संगीत, सकारात्मक चिंतन एवं प्रेरणादायक पुस्तकें/वीडियो गर्भ में पल रहे बच्चे के लिए वरदान है। बच्‍चे के चरित्र निर्माण के लिए  इन नौ महीनों में माता का आचरण, किसी भी स्कूली शिक्षा से उच्चतर होता हैं।

नई शिक्षा नीति में 8 वर्ष की उम्र तक की शिक्षा पर विशेष जोर दिया गया है। शास्त्रो और वर्तमान शिक्षाविदों का मानना है कि लगभग 8 वर्ष की उम्र तक बच्चे के मस्तिष्क का संपूर्ण विकास हो जाता है। अतः बच्चे के जन्म से लगभग 8 वर्ष की उम्र तक माता-पिता को बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करना आवश्‍यक है। बच्चों की संसार के लिए कोई धारणा नहीं होती है। उनको जिस रूप में संसार को दिखाया जाएगा उसी रूप में वे इसे जानेंगे। वे कोरे कागज की तरह होते हैं, लकिन उस पर प्रतिदिन कुछ ना कुछ लिखा जाता है। यह माता पिता की ही मेहनत रहती है की उनके बच्‍चो की जीवन रूपी पुस्‍तक स्‍टेशन पर बिकने वाली कामवासना एवं हिसां से भरी हुई मेगज़ीन बनेगी या करोड़ो के पथ प्रर्दशित करने वाली पवित्र पुस्‍तक भगवद् गीता। बच्चे जितना पढ़ाने से नहीं सीखते, उससे कहीं अधिक देखकर अनुसरण करने से सीखते हैं। माता-पिता का व्यवहार, भाषा, विभिन्न विषयों के लिए उनकी धारणाएँ समय के साथ बच्चे ग्रहण कर लेते है। आपका व्यवहार ही उनकी किताबें हैं। वे इन्हीं व्यवहारिक किताबों से जीवन को सीखते हैं।

उदाहरण स्‍वरूप जिन बच्चों को शान्‍त रखने के लिए उन्हें डॉक्टर/इंजेक्शन/जानवर/अंधेरे से डराया जाता है, ऐसे बच्चे बड़े होने पर भी डॉक्टर/इंजेक्शन/जानवर/अंधेरे से डरते हैं। आपने आपके आस-पास ऐसे व्‍यक्तियों को जरूर देखा हाेगा, जो अकारण ही बहुत सी चीजों से डरते हैं। जिस किसी भी विषय पर पहली बार बच्‍चे को जो सिखाया जाता है, ऐसे अधिकांश विषयो पर उनकी धारणा जीवन भर वही रहती है। बच्‍चो की प्रकृति, जन्‍तुओ, मनुष्‍यो एवं संसार के प्रति सकारात्‍मक अथवा नकारात्‍मक धारणा भी इसी तरह बनती है। सीखना बच्चों का स्वभाव है। उनके सीखने की गति अत्यंत ही तेज होती है। उनकी जिज्ञासा (Curiosity) बहुत अधिक होती है। उसी जिज्ञासावश वे लगातार सीखते रहते हैं। उन्हें सही गलत का कोई फर्क पता नहीं होता है। वे जैसा देखते हैं, वैसा ही सीखते जाते हैं। अत: माता-पिता का किरदार प्रमुख हो जाता है। क्योंकि आप उनके सृजनकर्ता है,तो अच्छी बातें ही सिखाना चाहेंगे। हाँलाकि यह बात भी सत्‍य है कि माता-पिता को भी इस बात का ज्ञान हो कि किस समय क्‍या सिखाना है।

आप स्वयं विचार कीजिये की वे कौन-कौन सी चीजें/बातें है, जो आप पसंद/नापसंद करते हैं? ऐसा क्यों है? उन सभी पसंद/नापसंद में आपके बचपन का कितना योगदान हैं? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि संसार के बारे में आपकी धारणा के लिए आपके बचपन का योगदान सबसे अधिक है।

शिक्षाविदों का मानना है कि बच्चाे की लगभग 70%  मोलिक शिक्षा लगभग 8 वर्ष की उम्र तक समाप्त हो जाती हैं। बाकी जीवन काल में वह बाकी 30%  मोलिक शिक्षा ग्रहण करता है। यह कहा जाता है कि "बच्चे माता-पिता के चरित्र, व्यवहार, आदतों का दर्पण होते हैं" माता-पिता का संपूर्ण चरित्र उनमें निहित हो जाता है। इस तरह एक नई पीढ़ी बनकर तैयार होती है। इस नई पीढ़ी के निर्माण में माता पिता की जिम्मेदारी ही सर्वाधिक होती है। माता पिता ही बच्चे के चरित्र और भविष्य के निर्माण में सर्वाधिक भागीदार होते हैं।

 अतः यह स्पष्ट है की लगभग 8 वर्ष की उम्र तक आप बच्‍चे का जीवन रूपी मटका तैयार कर उसे ठीक प्रकार से भट्टी में पकाने का कार्य करते है। बच्‍चे को धारण करने योग्‍य पात्र बनाते है। यदि ठीक से पका तो ही वह आगे के जीवन में अधिक से अधिक पानी (ज्ञान) स्‍वंय में भर सकेगा। अर्थात स्कूली शिक्षा व्यक्तित्व के सम्‍पूर्ण विकास में उस अनुपात में सहायक नहीं है जिस अनुपात में उपरोक्त अनौपचारिक शिक्षा। इस लेख में मैंने शिक्षाविदो एवं सनातन ऋषियों द्वारा वर्णित व्यक्तित्व विकास की प्रस्तावना मात्र प्रस्तुत की है। बच्चो के व्यक्तित्व विकास और उसमें माता पिता का महत्व अपने आप में एक वृहद विषय है, जिसके बारे में आपको विस्तार से पढ़ना चाहिए। यदि आप नवविवाहित हैं अथवा अपने परिवार को बढ़ाने के लिए विचाररत हैं तो आपकी अगली रचना के प्रति जिम्मेदारियों से आप भली-भाँति परिचित हुए होंगे। आशा है यह लेख आपके जीवन को नई दिशा प्रदान करेगा।

(बच्‍चो के पालनकर्ता के रूप में विभिन्‍न विषयों पर काेई भी सवाल पूछने के लिए आप simplewords48@gmail.com पर ई-मेल कर सकते हैं। आपको लेख पसंद आए तो कृपया इसे शेयर करें। )  

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